अनुभवों की किताब में एक
अध्याय
व्यकित अपने
पूरे जीवन में कुछ न कुछ पहली बार करता है और साथ सीखता है बहुत कुछ नया।
मैंने भी बहुत कुछ सीखा, कभी हँसकर, कभी रोेकर और सच मानिए सीखने के इस सफर
में हँसने में जितना मज़ा आया, उतना ही मज़ा रोने में भी आया।
इस सीखने और नया जानने के सफ़र में मैं आ गर्इ तारा अक्षर+ प्रोग्राम में
जहाँ मुझे फील्ड में जाने का मौका मिला। मुझे मिलना था अपने प्रोग्राम की
पढ़ार्इ हुर्इ महिलाओं से। मेरे लिए फील्ड में जाना वैसा ही था जैसे बच्चे
को स्कूल से मिली कुछ दिनों की छुटटी। खै़र, जाना अच्छा था कुछ नया सीखने
और अपनी अनुभवों की किताब में कुछ नये अध्याय जोड़ने के लिए।
फील्ड में जाने से पहले मैंने अपने दिमाग की अच्छी से धुलार्इ की क्योंकि
मैं नहीं चाहती थी कि मैं दिमाग में पहले से कुछ लेकर जाऊँ और सारी चीजो को
उस ही सोच के साथ सोचूँ।
फील्ड में गर्इ तो देखा कि बहुत सामान्य से लोग थे वे, जो जब भी किसी से
मिलते हैं तो पूरी तरह से मिलते हैं, हमारी तरह नहीं कि आधा दिमाग यहाँ तो
आधा कहीं और। उन लोगों के पास समय है अपने लिए और साथ ही दूसरे के लिए भी।
मैं बहुत सी महिलाओं से मिली जो अब पढ़-लिख रही थी। उनमें कितना बदलाव आया
ये मैं किसी पैरामीटर में रखकर तो नहीं बता सकती पर एक बात तो थी कि वे आज
अपना भला-बुरा अच्छे से जानती हैं।
पढा़र्इ-लिखार्इ से उन्हें अपनी बात कहनी आ गर्इ है। अब भी वे नये लोगों से
मिलने में थोड़ा घबराती हैं, पर कोशिश करती हैं कि घबराएँ नहीं और इस कोशिश
में अक्सर कामयाब भी होती हैं। आज अक्षर ज्ञान ने उनके शब्दकोश में वृद्धि
की है और वे अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से कहने लगी हैं। पढ़ने के बाद आज
वे अपने लिए काम माँगती हैं और चाहती हैं कि वे भी कुछ पैसा कमायें और पैसों
के साथ ही कमाना चाहती हैं थोड़ी सी इज़्ज़त, हालाँकि कुछ महिलाओं ने पढ़ने
के बाद अपना छोटा-मोटा काम शुरु भी कर दिया है जिनमें से कुछ अपनी सिलार्इ
या सब्जी की दुकानें चला रही हैं तो कुछ स्वयं सहायता समूह की सदस्य होकर
अपनी जि़म्मेदारियों को अच्छी तरह से पूरा कर रही हैं और कुछ काम करने की
योजना बना भी रही हैं। आज ये महिलाएँ इतनी तो सक्षम हो गर्इ हैं कि चुनौतियों
से आँख न चुराकर उनका सामना करने की कोशिश करती हैं।
जितनी महिलाओं से मैं मिली उन सबके जीवन की अपनी छोटी-छोटी उपलबिधयाँ हैं
पर इन उपलबिधयों की अहमियत को हम उनकी रोज की परेशानियों से दो-चार होने पर
ही समझ सकते हैं। हर महिला की कोर्इ न कोर्इ समस्या थी, जिसे वह अपने-अपने
तरीके से दूर करना चाहती है और कुछ ने तो दूर कर भी लिया है। मैं ऐसी भी
कुछ महिलाओं से मिली, जिन्हें मैं आज भी याद करती हूँ और उनमें आये बदलाव
को भी। उन महिलाओं ने अपने पति के तानों के बारे में मुझे खुलकर बताया। ये
महिलाएँ इस पतिव्रता समाज का ही एक हिस्सा थीं जहाँ पति की बुरार्इ करना
गलत माना जाता है और वह भी किसी अनजान से तो महापाप है। मैं शिक्षा की शकित
से हैरान थी। वाकर्इ, शिक्षा न्याय और अन्याय में फर्क करना सिखा देती है।
तीन दिनों के इस सफर के निचोड़ (नटशेल) में मैं बस इतना ही कहना चाहती हूँ
कि आज भी हमारे देश में एक साथ दो समय चल रहे हैं, जहाँ एक ओर मेट्रो से आगे
बुलेट टेरन की बात की जाती है तो कहीं हमारे गाँवों में आज भी बैलगाड़ी ही
चलती है। ख़ैर, संसाधनों के सही बँटवारे का रोना न रोते हुए बस इतना ही
कहुँगी कि वे लोग आम से हैं जिनके सपने बहुत छोटे-छोटे हैं और जिन्हें हम
मेटारे सिटी में रहने वाले तो नहीं समझ सकते। पर एक बात सच है कि वे लोग भी
अपने आप में ख़ास हैं और उनके छोटे-छोटे सपने भी। इस बात को समझने के लिए
आपको बस अपनी रफ़्तार कम करनी पडे़गी और ठहरना पड़ेगा कुछ पल उनके साथ। q
Alka Manral
amanral@tarahaat.com
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